भूमि अधिग्रहण कानून की जन्मपत्री खंगालने पर मालूम हुआ कि इसका जन्म 1839 में तब हुआ जब सम्पूर्ण भारत में राजनीतिक और प्रशासनिक रूप में अंग्रेजों का एकाधिकार था लेकिन तब इस कानून को कुछ कारणों से लागू न किया जा सका जो आगे चलकर 1852 में एक ट्रेलर के रूप में बम्बई प्रेसीडेंसी में लांच हुआ. उस समय बम्बई प्रेसीडेंसी में महाराष्ट्र,गुजरात,राजस्थान,गोवा राज्यों के साथ-साथ मध्यप्रदेश का वह हिस्सा भी आता था जो नागपुर से जुड़ा था.उसके बाद ही कुछ वर्षों बाद 1857 की पहली क्रांति हो गई जिसकी वजह से पूरे देश में इसे लागू करने में कुछ विलंब हो गया और जो आगे चलकर एक संशोधन के बाद 1894 में आधिकारिक तौर पर समूचे देश में लागू हो गया. इस संशोधन के माध्यम से यह बताया गया कि सरकार के द्वारा अधिग्रहित की हुई किसी भूमि के संदर्भ में हिन्दुस्तान की कोई भी अदालत संज्ञान नहीं ले सकेगी और कोई भी व्यक्ति सरकार के फैसले के खिलाफ कहीं भी शिकायत नहीं कर सकेगा.अंग्रेजों द्वारा बनाए गए ऐसे नियमों का साफ मतलब था कि इस विषय में उनकी खूब मनमानी चलेगी वे जहां चाहेंगे जिसकी चाहेंगे उसकी जमीन हडपेंगे जहां भी मन होगा वहां अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित करेंगे और देश के खनिज संसाधनों की जमकर लूट मचाएंगे और उन्होंने ऐसा किया भी.आजादी के पूर्व के सबसे दमनकारी कानूनों में से एक था यह अंग्रेजों का बनाया हुआ भूमि अधिग्रहण कानून जिसमें न जाने कितने लोग बेघर हो गए और हमेशा के लिए उनके गुलाम बन गए.इस कानून के कारण हुए अत्याचार का एक उदाहरण है मालचा गांव, बहुत कम लोग इस गांव के बारे में जानते हैं यह सोनीपत के पास स्थित एक गांव था जिसपर अंग्रेजों की बुरी नजर 1911 के पास पड़ी और उन्होंने इसके अधिग्रहण का फरमान जारी कर दिया लेकिन गांव के किसानों ने जमीन देने से मना कर दिया क्योंकि उनकी रोजी रोटी का एकमात्र स्रोत उनके खेत ही थे और इसको लेकर उनके और किसानों के बीच जमकर खूनी संघर्ष हुआ जिसमें करीब 33 किसान मारे गए और उनकी जमीन अंग्रेजों द्वारा हड़प ली गई और उसी जमीन पर आगे चलकर भारत का राष्ट्रपति भवन और संसद भवन बनाया गया. और मित्रों विडंबना देखिए कि उसी संसद में बैठने वाले हमारे नेता उन किसानों की शहादत को भूल चुके हैं, कानून बनाते समय उन्हें किसानों का तनिक भी ख्याल नहीं आता.ऐसे ही अंग्रेजों के दमन के सैकड़ों उदाहरण हैं जिसमें उन्होंने इस कानून का सहारा लिया और विडंबना देखिए कि आजादी के बाद जिन कानूनों को खत्म कर देना चाहिए था उन्हीं कानूनों को देश आज भी ढो रहा है और अपनी बदहाली पर खुद ही तरस खा रहा है॥अंग्रेजों के बनाए इस भूमि अधिग्रहण कानून का दुरुपयोग आजाद भारत में भी जमकर हुआ है इसके भी अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं चाहे वह गुजरात के "सतसैदा वेट" द्वीप का हो जिसका सौदा तत्कालीन चिमनभाई की सरकार ने दस पैसे प्रति स्क्वायर मीटर की दर से अमेरिका की "कारगिल" कम्पनी से कर लिया था जिसमें बाद में खुलासा हुआ कि इस सौदे के लिए मुख्यमंत्री को मोटी रकम अदा की गई थी. ऐसे ही न जाने कितने उदाहरण हैं जिसमें नेता या अफसर घूस खाकर जमीन का सौदा कौड़ियों के भाव कर देते हैं और जनता बस मूकदर्शक बनके देखती रहती है॥आजादी के बाद पहली बार 2013 में तत्कालीन यूपीए सरकार भूमि अधिग्रहण कानून लेकर आयी जिसमें किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए कहा गया कि यदि किसी निजी परियोजना के अंतर्गत किसी भूमि का अधिग्रहण होता है तो उस जमीन से संबंधित 80% लोगों की सहमति आवश्यक होगी और यदि किसी सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजना के लिए भूमि का अधिग्रहण करना होगा तब उस भूमि से संबंधित 70% लोगों की सहमति आवश्यक होगी और साथ ही शुरू होने वाली परियोजना का सामाजिक प्रभाव क्या होगा इसका सर्वे भी कराया जाएगा, पुराने कानून में प्रावधान था कि यदि अधिग्रहित की हुई भूमि पर 5 साल तक कोई भी काम शुरू नहीं होता है तो उसका अधिग्रहण निरस्त किया जाएगा॥ये उस कानून के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु थे जिनसे किसान भी सहमत थे लेकिन 2014 में जब नई सरकार आई तो उसने इस पूरे प्रारूप को बदल दिया और उपरोक्त सभी शर्तों को मानने से मना कर दिया.नये कानून के अनुसार लोगों की सहमति नहीं सरकार का निर्णय ही सर्वमान्य होगा सरकार के आदेश के विरुद्ध बिना सरकार की अनुमति के अधिग्रहण के खिलाफ न्यायालय नहीं जाया जा सकेगा किसी परियोजना को शुरू करने के पहले कोई सर्वे नहीं कराया जाएगा चाहे लोग भोपाल जैसी गैस त्रासदी का शिकार ही क्यों न हो जाएं.
अब आप ही फैसला कर लीजिए कि आज के और 120 साल पहले अंग्रेजों के बनाए हुए भूमि अधिग्रहण कानून में क्या अंतर है॥
अब आप ही फैसला कर लीजिए कि आज के और 120 साल पहले अंग्रेजों के बनाए हुए भूमि अधिग्रहण कानून में क्या अंतर है॥
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